दुर्गा पूजा और दिवाली के समाप्त होते ही छठ पूजा शुरू हो जाती है। यह पर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तरप्रदेश में मनाया जाता है, परन्तु आजकल इसकी मान्यता देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी देखी जा रही है।हम बिहारी छठ पूजा को पर्व नहीं बल्कि महापर्व मानते है।
दिवाली के चौथे दिन से शुरू होने वाला यह पर्व चार दिनों तक चलता है।इन चार दिनों में श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना कर के वर्ष भर सुखी,स्वस्थ और निरोगी होने की कामना करते है।
वैसे तो इस पर्व को बिहार के अलग अलग जगहों पर अलग अलग तरीको से मनाया जाता है।हमारे मुंगेर में छठ पूजा का विशेष महत्त्व है। ऐसी मान्यता है की गंगा के लगभग 3 किमी. बीच में मुद्गल ऋषि के आश्रम में रामायण काल के दौरान माता सीता ने इस पर्व को किया था और वर्त्तमान में इसी स्थान को सीता चरण के नाम से जाना जाता है।आनंद रामायण के अनुसार जब राम ने रावण का वध किया तो ब्रह्महत्या के पाप मुक्ति हेतु अयोध्या के कुल गुरु मुनि विशिष्ठ के आदेश पर मुग्दलपुड़ी (मुंगेर का प्राचीन नाम) में ऋषि मुग्दल के पास राम सीता आये।ऋषि मुगदल ने श्री राम को पापमुक्ति हेतु कष्टहरणी घाट में यज्ञ करवाया चूंकि महिलाएँ यज्ञ में भाग नहीं ले सकती इसलिए माता सीता ने ऋषि के आदेश से आश्रम में ही रहकर सूर्य की उपासना की, अस्तगामी और उदयगामी सूर्य को अर्ध्य दिया था, और तो और आज भी वहां मंदिर गृह में पश्चिम तथा पूरब की ओर माता के चरण के निशान है।इसलिए ऐसा माना जाता है की लोक आस्था का महापर्व छठ का आरम्भ मुंगेर से ही हुआ।
और तब से दिवाली के ख़त्म होते ही छठ पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है।इन दिनों छठ पूजा के गीत से शहर का कोना-कोना गूंज उठता है।इन दिनों बाजार की रौनक देखने लायक होती है,सड़को के बीचो-बीच फल-फूल एवम पूजन सामग्री से सजी दुकाने सारे माहौल को बदल के रख देती है।बाज़ार में खचा-खच भीड़ होती है।
छठ पूजा के प्रथम दिन को नहाय-खाय अथवा कद्दू भात से जानते है, इस दिन छठ पूजा के उपासक सवेरे गंगा स्नान कर के एक विशेष तरीके से कद्दू भात का प्रसाद बनाते है और सभी के बीच मिल बांट के खाते है।छठ पूजा का दूसरा दिन जिसे खरना के नाम से भी संबोधित किया जाता है इस दिन उपासक पूर्णरूपेण निर्जला व्रत में रहते है और रात में कुछ विशेष पकवान जैसे रसिया इत्यादि की पूजा करते है।इसके ठीक अगले दिन यानी छठ पूजा के दिन बड़े ही श्रद्धा के साथ मुख्य प्रसाद बनाया जाता है फिर शाम को जब पुरुष सर पर डाला रख के और उसके पीछे पीछे महिलाए छठ का सौहर गाते हुए जब गंगा घाट की ओर निकलती है उस समय का दृश्य बड़ा ही मनोरम होता है।गंगा घाट पर कुछ लोग उपासक की सेवा में दूध, अगरबत्ती, फूल, इत्यादि पूजन सामग्री का वितरण करते है। फिर टखने भर पानी में हाथ में पूजा के लिए सूप जो की तरह तरह के पकानो के साथ साथ फल फूल से सजे होते है को लेकर डूबते हुए सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है।रात भर गंगा घाट में गीत भजन के साथ जागरण के पश्चात सुबह उगते हुए सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है, और इस तरह लगातार तीसरे दिन निर्जला व्रत के बाद उपासक प्रसाद ग्रहण कर अपने व्रत का समापन करते है।
छठ पूजा हम बिहारियो के लिय सिर्फ पूजा या त्योहार नहीं हैं बल्कि हमारी संस्कृति है। यह हमारी पहचान है।वैसे लोग जो घर से दूर रहते है इस पर्व के बहाने घर आते है और अपनों से मिलते-जुलते है ,इस तरह यह चार दिन का त्योहार अगले सालभर के लिए यादगार बन जाता है।यही कारण है की घर में माँ के साथ-साथ घर से दूर लोगो को भी इस पर्व का इंतज़ार होता है।
और इस तरह छठ पूजा के साथ हिन्दू धर्म के सभी बड़े पर्व का समापन हो जाता है।